बसंत पंचमी- बसंत उत्सव
Basant Panchami, vasant Utsav
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बसंत पंचमी |
वसंत के आगमन का प्रथम दिवस है -वसंत पंचमी। वसंत पंचमी एक प्रसिद्ध त्योहार है जो सर्दियों के मौसम के अंत और वसंत ऋतु की शुरुआत करता है। सरस्वती वसंत पंचमी त्योहार की हिंदू देवी हैं।
वसंत को ऋतुओं का राजा कहा जाता है। शीत ऋतु का जाना और ग्रीष्म के आगमन के पूर्व की यानी, शीत और ग्रीष्म के बीच का वह सुहाना समय जब ना तो ठंड होती है और न ही अधिक गर्मी, बस यही है -बसंत ऋतु।
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विद्यार्थी अध्ययन आरम्भ करते हैं। लगता है मानो यह सुहाना मौसम सबका स्वागत कर रहा है और इसी लिये इसे एक उत्सव के रूप मे मनाया जाता है।
यह समय इतना सुहाना होता है कि केवल भारत के विभिन्न प्रान्तों में इसे पर्व के रूप में नहीं मनाते वरन् विश्व के अनेक हिस्सों में इस समय पर्व मनाये जाते हैं।
Basant Panchami- Festivals season- Festivals all over India
वसंत पंचमी को माता सरस्वती की पूजा कर विद्यार्थी उनसे ज्ञान, बुद्धि और कला की याचना करते हैं।
बसंत पंचमी यानी बसंत ऋतु का प्रथम दिवस और इस दिन आराधना की जाती है सरस्वती माता की। किसी भी शुभ कार्य को आरम्भ करने आराधना की जाती है सरस्वती माँ की।
छात्र जीवन यानी विद्या, ज्ञान, और कला अर्जन करने का स्वर्णिम समय।
सरस्वती माँ इन सभी विद्याओं की देवी हैं
1. उनके हाथों में वेद है वे ज्ञान की देवी हैं, बुद्धि की देवी हैं।
2. उनके हाथों में वीणा है अर्थात् वे कला-संगीत और अन्य समस्त प्रकार की कलाओं की दाता हैं।
3. उनके श्वेत वस्त्र, श्वेत पद्म और श्वेत हंस-सादगी, पवित्रता और तेज का प्रतीक हैं।
छात्र जीवन में हमें जिन विद्या और ज्ञान की आवश्यकता होती है वे सभी प्रदान करने वाली सरस्वती माता ही हैं।
Saraswati Puja festival is celebrated all over India with great enthusiasm and joy, especially among students.
और इसीलिये बसंत पंचमी और सरस्वती माता की पूजा का इतना महत्व है।
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सरस्वती वंदना-
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला
या शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणावरदण्डमण्डितकरा
या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ॥
सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की प्रसिद्ध कविता
सरस्वती वंदना गीत-
वीणावादिनि वर देवर दे, वीणावादिनि वर दे !
प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव
भारत में भर दे !
काट अंध-उर के बंधन-स्तर
बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर;
कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे !
नव गति, नव लय, ताल-छंद नव
नवल कंठ, नव जलद-मन्द्ररव;
नव नभ के नव विहग-वृंद को
नव पर, नव स्वर दे !
वर दे, वीणावादिनि वर दे।
सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
भरा हर्ष वन के मन,
नवोत्कर्ष छाया।
किसलय-वसना नव-वय-लतिका
मिली मधुर प्रिय उर-तरु-पतिका
मधुप-वृन्द बन्दी-
पिक-स्वर नभ सरसाया।
लता-मुकुल हार गन्ध-भार भर
बही पवन बन्द मन्द मन्दतर,
जागी नयनों में वन-
यौवन की माया।
अवृत सरसी-उर-सरसिज उठे;
केशर के केश कली के छुटे,
स्वर्ण-शस्य-अंचल
पृथ्वी का लहराया।
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